गुरुवार, 9 जून 2016

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                                       गला खुश्क पर ---
भागलपुर का रेलवे  स्टेशन ---आज भी वैसा ही है जैसा मेरे बचपन की यादों में बसा हुआ है। वही भीड़ ,वही दृश्य-- आसपास की दुकानें --कोई बदलाव नहीं-- कोई ठहराव नहीं। बस भागे जा रहे हैं लोग और भागी जा रही है जिंदगी। ठहरा हुआ है तो मात्र वो वक्त  -- जो  मेरे उस जगह पहुँचते ही मुझे स्नेहसिक्त आँचल में समेट लेता है शायद यही वजह है की मैं कुछ सुस्त सी हो जाती हूँयहाँ आकर । अन्यथा किसी भी रेलवे स्टेशन पर  मैं बुक स्टाल पर जरूर जाती हूँ पर यहाँ कई यादें मेरे सामने खड़ी हो जाती है जिनमें से कुछ यादें माँ के साथ होती है तो कुछ पिताजी के साथ। सच बड़े ही प्यारे दिन थे वे-- जब पूरी दुनिया अपनी मुट्ठी में समाई रहती थी --नानी के घर जाती थी तब भग्गू सिंह के जहाज ( बोट )  से गंगा नदी पार् करती थी। जो की दो मंजिला हुआ करता था मेरे ख्याल से मै , मेरी छोटी बहन और छोटा भाई  जरूर रहता होगा माँ के साथ --आधे घंटे में हम उस पार से इस पार यानि बरारी जरूर आ जाते होंगे  जब हम जहाज पर चढ़ते  थे  तो मैं  माँ से हमेशा  जहाज के दूसरी मंज़िल पर जाने के लिए कहती थी और माँ मान जाती थी. कभी मना नहीं करती थी जबकि अधिकतर लोग नीचे ही रहते थे क्योंकि किनारा तुरंत ही आ जाता था।  वैसे भी गर्मियों में गंगा नदी की चौड़ाई कम हो जाती थी। अब जब दुनिया की समझ थोड़ी सी हुई है तो लगता है माँ कितनी अच्छी थी मेरी-- बिना किसी डांट डपट के हमें ऊपर बैठा लेती थी जबकि हमारे साथ सामान भी हुआ करता था और कई बार माँ के साथ पिताजी नहीं होते थे। मैं ऊपर जहाँ  बैठने के लिए कुर्सियां बनी  रहती थी उसपर बैठकर बहुत खुश होती  थी और मन ही मन गंगा नदी की  धार को देखकर सोचती थी कि अगर किसी वजह से जहाज डूब भी जाए तो हम तो बच ही जायेंगे और यही वजह थी की मै हमेशा ऊपर ही बैठती थी.आज जब उन बातों को याद करती हूँ तो  लगता है क़ि माँ कितनी अच्छी थी-- मेरी ख़ुशी की खातिर उन्हें हमेशा सामान को ऊपर ले जाना पड़ता था और लाना पड़ता था लेकिन  फिर भी --- ???? बचपन से ही नानी के घर जाने की वजह से इतनी बार गंगा नदी पार किया कि अथाह जल से डर  नहीं बल्कि दोस्ती हो गई है। पिताजी के साथ भी पाकुड़िया ( झारखण्ड) जाने के लिए भागलपुर आना पड़ता था जहाँ रात की गाडी पकड़नी होती थी --साथ में छोटा भाई भी रहता था --पलकें नींद 

से बोझिल रहती थी। पिताजी बड़े प्यार से बोलते थे -- आँखें खोलो बेटा ---गाड़ी आनेवाली है पर आँखें खुलती नहीं थी बहुत अफसोस होता था पर नींद आंखों में सवार हो जाती थी --ऐसी कई यादें बिन बुलाये आ जाती है --वो जगह अभी भी याद है --सब कुछ वैसा ही है  पर ---
इन्ही यादों में खोयी वेटिंग रूम में बैठी थी ११ मई को ट्रैन की प्रतीक्षा में कि अचानक पतिदेव ने नारियल का टुकड़ा बढ़ाया मेरी ओर --जिसे देखते ही मुझे एक झटका सा लगा।  नारियल मुझे बेहद पसंद है और बचपन में स्टेशन या बस स्टैंड पर आते ही आँखें नारियल के इस तिकोने टुकड़े को तलाशने लगती थी ---साथ में माँ हो या पिताजी हमें नारियल जरूर मिल जाता था जिसे खाते- खाते  मैं बहुत सारे सपने बुन  लेती थी।एकदम छोटे - छोटे टुकड़ों में खाती  थी ताकि बहुत देर तक खाती रहूं। नारियल खाना  और खिड़की से बाहर देखना --ऐसी कई आदतें थीं जिससे  मेरी दुनिया --मेरी मुट्ठी में कैद रहती थी --किसी से कोई मतलब नहीं। जो चाहिए वो पल में हाजिरहो जाता था। कोई बड़े सपने नहीं थे मेरे। आज भी नहीं हैं। जो मिलता है उसमे खुश रहती हूँ। बहरहाल पतिदेव की तहेदिल से शुक्रगुजार हुई नारियल देखकर पर दिल को जो अचानक धक्का लगा उससे आँखों पर तो असर पड़ना ही था। यादों से पीछा छुड़ाने के लिए कुछ करती इससे पहले ही पतिदेव ने कहा --पास में ही बुक स्टाल है जाकर कुछ किताबें खरीद लो --इससे जहाँ मेरे सुस्त पड़े कदमो की चाल  तेज हुई वहीँ मैं अतीत के गलियारे से भी मुक्त हो गई। मनपसंद किताबों को खरीदने के बाद दिल बड़ा हल्का हो  गया --तभी ट्रैन भी आ 
गई। लेकिन ---नारियल खाते खाते गला खुश्क पर आँखों की कोर गीली हो गई --सोचा अब क्या करूँ ---कैसे छुपाऊं ---अपनी गीली पलकों को , सोच ही रही थी की अचानक --एक सुखद संयोग से सामना हो गया -- मेरे 
सीट  पर मेरी  ही ससुराल के-- जो की रिश्ते में मेरे जेठ लगते हैं उनका बेटा सपरिवार  बैठा हुआ था मिल गया --जिन आँखों में आंसुओं ने अपना डेरा जमाना चाहा --वहां अब ख़ुशी का बसेरा था। सच में ----पल पल में रूप बदलने में माहिर है ये जिंदगी ---इसमें जीतते वही हैं ---जिसने इसके प्रत्येक पल को  दिल से अपनाया है। 

                                                      ब्लॉगर साथियों---बहुत दिनीं के बाद आज वापसी कर रही हूँ --कोशिश रहेगी की आपके ब्लॉग पर भी आऊं अगर नेट साथ देगा तो---


4 टिप्‍पणियां:

  1. Swagat hai apka apke blog par!
    Garmiyon me nadiyon ka fast chhoti ho jata hai par yadon ka fast chouka ho jata hai...fir usme donate utrate raho!!

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  2. Bahut galtiyan hui...faat ko fast, chouda ko chhoti/ chouka doobate ko donate kar diya patthe ne

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  3. धन्यवाद सर ।।।। मुझे भी बहुत दिक्कत आई। बहुत समय लग गया । पर आख़िरकार लिख ही दिया ।। कुछ लोगों का बहुत आग्रह था ।

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  4. पढ़ कर बचपन की याद ताजा हो गई। समय में गोते लगाते हुए ये भी आंखे नम हो गए। आज भी याद है कैसे भग्गू सिंह के जहाज की आवाज सुन कर क्वार्टर के छत पर जाता था।

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