मंगलवार, 20 अगस्त 2013

भाई की बात और डांट दोनों में दम था



माँ -जाई के प्यार से        पति के संग --पीहर के रंग 
भरी रहे कलाई 
लिए साथ में 
सतरंगी यादें 
खुशियों की घड़ी 
       आई.








सन १९८४ की बात है। उस समय मैं बारहवीं (I.Sc.) कर रही थी। मैं और मेरा भाई एक कक्षा में हीं थे उसका विषय गणित था और मेरा जीवविज्ञान । हम दोनों को दोनों के सहपाठी के बारे में सारी बातों की जानकारी रहती थी। मेरे साथ मेरी एक सहपाठी थी जिसका नाम था -गौरी। पढने में औसत थी।  उसकी हरकतें बड़ी विचित्र हुआ करती थी। सारे लड़कों में लोकप्रिय  होने के साथ हीं महाविद्यालय के स्टाफ की भी मुँहलगी थी। हालाँकि पढाई के मामले में वो हमेशा मुझसे मदद लेती थी और मेरे उसके सम्बन्ध भी अच्छे थे पर एक बात मुझे बड़ी अखरती थी कि प्रायोगिक कार्य करते समय जो डिमांसट्रेटर हमें प्रयोग सम्बन्धी कुछ बातें समझाने आते थे वो अधिकतम समय  गौरी के आसपास हीं मंडराते रहते थे।  बार-बार पूछने के बावजूद वो मुझे नज़रअंदाज  कर देते थे। गौरी को वास्तविकता का ज्ञान था पर वो भी मजे लेती थी। नम्बर के चक्कर में कोई विद्यार्थी उनसे पंगा नहीं लेता था। इसके पहले मैंने ऐसा कभी देखा नहीं था।    मुझे बहुत दुःख  होता था। मैंने बहुत कोशिश कर ली ,बहुत तैयारी भी करके जाती थी ताकि उस  डिमांसट्रेटर को मुझे डाँटने  का मौका न मिले और मुझे भी समझा  दे क्योंकि स्कूल में ऐसा माहौल नहीं देखा था मैंने।  वस्तुतः होता ये था कि प्रयोग सम्बन्धी सारी बातों की जानकारी डिमांसट्रेटर हीं देते थे। अंत में सर आते थे। सप्ताह में एक दिन रसायन का प्रयोग होता था और मुझे बड़ा ख़राब लगता था ,एक दिन की बात हो तो चल जाए पर हमेशा यही होता था। दूसरी लड़कियों  अन्य लड़कों की सहायता ले लेती या फिर गिडगिडाती उस डिमांसट्रेटर के सामने।  काम तो मेरा भी हो जाता था पर डिमांसट्रेटर का ये पक्षपात मुझसे सहन नहीं होता था। जब सहनशीलता की सीमा जवाब देने लगी तो मैंने अपने भाई दिलीप कुमार जो कि आज एयर -पोर्ट बोधगया में इंजीनियर है से अपनी परेशानी बताई।  वैसे तो  वो मेरा छोटा भाई है  पर उसका व्यवहार बड़े भाई जैसा था।  वो जो भी कहता था वो मेरे लिए पत्थर की लकीर हुआ करती थी ना की कोई गुंजाइश नहीं होती थी। हम-दोनों बिना किसी दुराव-छिपाव के अपनी परेशानियाँ साझा करते थे और उसका समाधान भी निकालते  थे। इसलिए जब उस  परिस्थिति में मुझे दुःख होने लगा तो मैंने उसे बताया की  डिमांसट्रेटर गौरी को तो बड़े प्यार से बताते हैं पर मुझे नज़र-अंदाज करते हैं।  बात पूरी होने के पहले हीं मेरे भाई ने मुझे  जबरदस्त  डांट लगाई जिसे मैं आजतक नहीं भूल  पाई हूँ वो शायद भूल गया होगा पर उसकी वो सीख मुझे आज  भी राह दिखाती है। उसने डांटते हुए मुझसे कहा था--ऐसी लड़की से अपनी तुलना करती है ? तुम्हे पता है वो कैसी लड़की है ? सच मैं बता नहीं सकती पर दिल के जिस भाग में मुझे दुःख सा महसूस होता था भाई की  डांट से वहां खट से चोट लगी और मेरा दुःख तुरंत छू -मंतर हो गया। ऐसा नहीं है की किसी की बुराई से मेरे अहम को तुष्टि मिलती है पर भाई की बात और डांट दोनों में दम था। उसकी बातों में सच्चाई थी।



                 पीहर  की पुरवाई -भाभी  और भाई

 आज भी कई बार मुझे ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है किन्तु  अब दुःख नहीं होता बल्कि ऐसी औरतों पर दया आती है जो लटके-झटके दिखा कर अपना काम निकाल  लेती है और ईमानदार तथा कर्तव्यनिष्ठ औरतों को परेशान  करती है। कई बार पुरुष सहकर्मी मजाक में बोलते हैं की औरतें रो- धो कर अपना काम करवा लेती है पर मैं तुरंत प्रतिरोध व्यक्त  करती हूँ। पर सच्चाई तो यही है की कई जगह ऐसी औरतें और लडकियाँ मिल जाती हैं, जो अपनी मजबूरियों, अपने पति या घरवालों की बुराई कर अपने लिए सहानुभूति अर्जित कर अपना उल्लू सीधा कर लेती है भले हीं किसी अन्य का नुकसान  क्यों न हो। पर उन्हें  पता होना चाहिए   की शार्ट -कट का रास्ता कई बार इतना खतरनाक होता है की उसकी  जिन्दगी भर  भरपाई नहीं हो पाती है। अपने आसपास ऐसी कई घटनाएँ दिख जाती है पर किशोर -दिमाग पर छाई भाई के उस सीख से मुझे आज भी संबल मिलता है। सच्ची बात तो यही है की हमें किसी से तुलना करके दुखी नहीं होना चाहिए क्योंकि हर इन्सान का अपना-अपना स्तर होता है जो अतुलनीय होता है और ये बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि  तुलना हमेशा दुःख हीं देता है। मुझे मेरे भाई पर गर्व है। 


                मेरी आँखें के दो तारे -भतीजा -उमंग ,भतीजी -ख़ुशी 




बोधगया (मुक्ति का धाम ) में पूर्वजों की यादों में लीन निगाहें -कहाँ तुम चले गए ?