सोमवार, 29 सितंबर 2014

मधुर मुस्कान

सुबह के सवा नौ बज रहे होंगे। 
सिलिकॉन सिटी से भंवरकुँआ जाने के लिए निकल

रही थी। अकेली थी सो क़दमों की 
गति तेज थी कि अचानक पीछे से आवाज आई -आँटी कहाँ जा रही हैं ?आवाज की मधुरता से चिहुँक उठी -बिजली की गति से गर्दन घूमाया एक अनजान और अपरिचित ६-७ साल की बच्ची की आँखों में कौतुहल भरा प्रश्न देख कर बड़ा अच्छा लगा।  शायद वो मुझे पहचानती थी। मैं पढ़ने के लिए कॉलेज जा रही हूँ -तुम स्कूल जाती हो ? हाँ आंटी -मैं भी स्कूल जाती हूँ। बच्ची में गज़ब का आत्मविश्वास था। संभवतः वो पास में ही मकान बनाने वाले मजदूर की बच्ची थी और उसने मुझे मेरी बिटिया के साथ देखा होगा।  मैँ आगे बढ़ी पर दिल ने सरगोशी की ,कि  बच्ची ने पीछे से आवाज लगाकर रोक लिया पता नहीं बस मिलेगी या नहीं।  बचपन से ऐसी बातें सुनती आई हूँ। चार कदम आगे बढ़ी की बस जाते दिखी -दिल धक से रह गया -जा -आज तो छूट गई बस। रविवार था।  बिटिया और उसकी रूम मेट सो रही थी --शायद मैंने भी सन्डे मना  लिया था क्योंकि हमेशा सवा आठ तक घर से निकल जाती थी। खैर मुख्य सड़क तक आकर महू से आनेवाली ब्लू बस में बैठी पर ये क्या ? बस अभी दो किलोमीटर भी नहीं चल पाई की उसका पहिया पंक्चर हो गया। अब तो समय की सुई के साथ दिल की धड़कनें तेज़ हो रही थी क्योंकि साढ़े दस बजे तक शिक्षा संस्थान पहुंचना जरुरी था। साढ़े दस का मतलब साढ़े दस नहीं तो ? किस्मत से एक खाली ऑटो मिल गया और मैं  समय पर अपने स्थान तक पहुँच गई। आज भी कानों में  उस बच्ची की मधुर आवाज गूंजने के साथ हीं चेहरे पर मधुर मुस्कान फ़ैल जाती है पर  दिल में एक सवाल उमड़ने-घुमड़ने लगता है कि  लोग  महज एक संयोग को अन्धविश्वास का रूप दे देते हैं ----क्यों ?

रविवार, 13 अप्रैल 2014

धुँधली सी यादें


दो छोटे-छोटे बच्चों की  माँ  थीं वो---- चेहरे पे मुस्कान उनकी पहचान थी.सपनों से भरी उनकी आँखें हमेशा ही मुझे उनकी ओर आकर्षित करता था । काले- लम्बे बालों के बीच उनका चेहरा चाँद सा चमकता रहता था। उस पर उनका स्वभाव बहुत अच्छा था। बड़े प्यार से बातें करतीं थीं.…आंटी,,,,, धुँधली सी यादें हैं ---मैं शायद
कक्षा चतुर्थ में पढ़ती थी। ।मेरे ख्याल से  अंकल सरकारी डाक्टर थे। तभी उन्हें क़्वार्टर मिला था । वे भी देखने में बड़े सुन्दर थे ---सुंदरता के मामले में ऐसी जोड़ी मैंने शायद अभी तक नहीं देखा है। आंटी के घर के पास हीं मेरा स्कूल था। उनके दोनों बच्चे मुझसे घुल-मिल गए थे। मौका मिलते हीं  मैं  बच्चों से और आंटी मुझसे बात कर लेती थीं। बहुत अच्छा लगता था मुझे उनसे मिलकर।उम्र में मैं बहुत छोटी थी पर आंटी बहुत बातें शेयर करतीं थीं मुझसे। अचानक एक दिन आंटी ने बताया की अब उन्हें दो कमरे का  घर छोटा पड़ने लगा है --बच्चे बड़े हो रहे हैं। बड़ा क़्वार्टर नहीं मिलने की वजह से उन्हें कहीं किराए से मकान लेना होगा। उन्हें भी दुःख हो रहा था और मुझे भी --पर जाना तो था हीं । मेरा भी उस स्कूल में वो अंतिम साल था। छठी कक्षा में मेरा एडमिशन कन्या विद्यालय में करवाना था। जिससे अपनापन मिलता है उससे जुदाई हमेशा दुखदाई होती है --पर मिलना -बिछुड़ना प्रकृति का नियम है --ये बालपन में हीं समझ लिया था। किन्तु जिससे आप दिल से  जुड़े हुए रहते हैं --उससे मिलाने का प्रकृति भी भरपूर  प्रयास करती है -छठी कक्षा में एडमिशन के बाद जब मैं स्कूल जा रही थी तो जिस रस्ते से होकर मुझे जाना था उसी के पास में वो आंटी मुझे दिख गईं -दोनों खुश हो गए। बस उस दिन से आंटी स्कूल आते और जाते समय अधिकतर दिख हीं जाती थीं। मेरे ख्याल से आंटी अंतर्मुखी थीं क्योंकि उनकी दोस्ती नहीं थी किसी से ज्यादा। आते-जाते हम एक दूसरे से बात कर लेते थे। एक दिन अचानक आंटी का चेहरा देख मैं  घबरा गई। उनकी आँखें लाल-लाल हो रही थीं। मैंने पूछा -क्या हुआ आंटी --आप रोईं हैं क्या ?उन्होंने कहा--कल तुम्हारे अंकल को कुछ लोगों ने बहुत बहुत मारा है---हाथ से नहीं--लोहे की जंजीर से--क्यों मारा ? पूछने पर उन्होंने बताया की आदिवासी इलाके में जो शायद अंकल का ड्यूटी-स्थल था --लोगों ने अंकल को किसी आदिवासी औरत के साथ संदिग्ध अवस्था में देख लिया था कई बार उन्हेँ  धमकाया भी गया था पर उनकी बात नहीं मानने पर सभी लोग एक-जूट हो गए और अंकल को बुरी तरह से मारा। आज भी मार की उस काल्पनिक छवि से मैं अंदर से दहल जाती हूँ। अपने पति के शरीर पर पड़े लोहे के जंजीरों के निशाँ से आंटी को कितनी तकलीफ हुई होगी! जिस चेहरे पर हमेशा ख़ुशी देखी हो-- उस चेहरे पर आँसू देखना बड़ा कष्टदायक होता है। अंकल के लिए मुझे बिलकुल दुःख नहीं हुआ पर आंटी के लिए बड़ा दुःख हुआ। बात में कहीं -न कहीं दम होगा तभी उन लोगों ने ये कदम उठाया होगा क्योंकि जहाँ तक मेरा अवलोकन है आदिवासी   बड़े सच्चे और सीधे होते हैं..इतनी प्यारी बीवी और इतने प्यारे बच्चे के रहते अंकल के इस भटकाव से दिल में उनके लिए जहाँ नफ़रत की भावना ने जन्म लिया वहीँ उन आदिवासी की पीठ ठोकने  की इच्छा हुई। उस समय छोटी थी , उतनी समझ नहीं थी पर आज भी मेरे   विचार जस के तस हैं। भ्रष्टाचार और अराजकता के इस माहौल में कभी-कभी उन आदिवासियों की याद आती है। हो सकता है की किसी और वजह से उन्होंने अंकल की पिटाई की हो पर दिल उन आदिवासी को गलत मानने की गवाही नहीं देता। आज हमारे आसपास ऐसी  कई घटनाएं घट  रही है ,,अवैध सम्बन्ध फल-फूल रहे है। किसी की माँ-बहन और बेटी को जलील किया जा रहा है। । हम इन सबकी जिम्मेदारी शासन पर डालकर संतुष्ट हो रहे हैं। क्या  हमारा कर्तव्य नहीं है की हम उन पापियों को सबक सिखाएं  ? चाहे जिस रूप में  हो। लोग कहते हैं की हम दूसरों की फटी में टांग नहीं अड़ाते। गलत तर्क है ये। याद रखिये अगर आपके आसपास गलत लोग रह रहे हैं  तो कल को आपके घर में  बड़ी घटना घट  सकती है। इसलिए जागरूक रहिये और स्वथ्य समाज के निर्माण में अपनी भागीदारी निभाइए।  आपकी सतर्कता से अगर किसी की जान बचती है या किसी का घर तबाह होने से बचता है तो आपको  ख़ुशी मिलेगी। ये आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

माँ और मजबूरी







छोटे से बच्चे को क्रैच में छोड़ते समय माँ की आँखों में आँसूं  एवं दिल में दर्द था ----माँ छोड़कर जा रही है ये देख बच्चा  जार-बेजार रो रहा है पर माँ क्या करे उसे नौकरी भी करना है ताकि बच्चे का भविष्य सुरक्षित हो सके---
समय बदला-- वक्त ने करवट ली ---
 माँ  दरवाजे पर खड़ी है --उनकी आँखें आज भी भरी हैं  और दिल में दर्द भी है क्योंकि आज उनका बेटा पढ़लिख कर--- बड़ा आदमी ? बन गया है और बीवी के साथ ख़ुशी-ख़ुशी  अपने आशियाने की ओर  कदम बढ़ा रहा है। वक्त के साथ सिर्फ एक बात  नहीं बदली  ---माँ की आँखों में  आँसू और दिल में  दर्द---माँ बेटे के साथ जाना चाहती है पर नहीं जा सकती वो कल भी मजबूर थी और आज भी मजबूर है--कल उसकी  मजबूरी नौकरी थी और आज बेटे-बहू की  आज़ादी - सब कुछ बदल कर भी कुछ नहीं बदला  शायद इसे  हीं जीवन कहते हैं। माँ और मजबूरी का बड़ा गहरा नाता है।