गुरुवार, 23 जुलाई 2015

पैंतीस साल बाद

१ मई २०१५ को.....  लगभग ....  पैंतीस साल बाद  बचपन की उन गलियों और  सहेलियों से मिलने गई थी जिनके  साथ बड़े सुखमय पल बिताये  थे मैंने झारखण्ड के पाकुडिया में । जहाँ  बचपन की यादों को याद कर खुश हो रही थी वहीँ एक अंजाना सा भय भी था कि  पता नहीं कोई मिलेगी या नहीं , कोई मुझे पहचानेगा या नहीं पर बड़ी सुखद अनुभूति हुई जब  सहेली मीरा का घर पूछने पर एक लड़का हमें  ख़ुशी ख़ुशी उसके घर ले गया ,,,वहाँ  मीरा की माँ जो  काफी वृद्ध हो चली थीं मिलीं। मैंने उनसे पूछा--- आंटी मुझे पहचाना आपने-- हाँ तुम डिप्टी साहब की बेटी निशा हो --बिना समय गंवाए उन्होंने जवाब दिया। एक पल को मैं अवाक रह गई क्योंकि बचपन की निशा और आज की निशा में काफी अंतर आ चुका है और सबसे बड़ी बात ये थी की इस बीच हमारा कोई संपर्क भी नहीं था।





(जगह वही है उम्र अलग है ---इतनी बारिश थी कि  अँधेरा सा छा गया था, उसी समय का ये फोटो  है ) 
 चूँकि मीरा का घर मेरे विद्यालय के पास था अतः जब भी मौका मिलता था मैं उसके घर चली  जाती थी। मीरा अपने माता पिता की इकलौती संतान है ,इकलौती बिटिया की सहेली पर ममत्व उड़ेलने में उन्होंने कभी कोताही नहीं बरती थी। ये बात  उन्होंने त्वरित गति से पहचान कर साबित कर दिया। उनकी ख़ुशी की कोई सीमा नहीं थी --मेरे पतिदेव के साथ साथ मेरी दो बहनें  उसके बच्चे एवं पति  भी साथ में थे और हमें उसी दिन वापस भी होना था। बहुत कम समय था मेरे पास --शाम के तीन बजे पहुंची मात्र दो घंटे में  बहुत लोगों से मिलना  था। मीरा के घर के पास ही मेरी बाई का भी घर था। बाई बहुत पहले गुजर गई थी पर उसकी बिटिया मिल गई -- उससे भी मैंने यही  पूछा कि --मुझे पहचाना ? हाँ --आप निशा दीदी हैं। कितनी ख़ुशी हुई इसका वर्णन करना कठिन है। मैं डरते डरते पाकुडिया गई थी की उस जाने पहचाने जगह में अगर अनजान बन जाउंगी तो शायद बचपन का अनमोल खजाना खो जायेगा मेरा लेकिन नहीं वो खजाना आज कई गुना बढ़ गया। 

                                        खैर समय कम था ब्लॉक जाना था जहाँ क़्वार्टर में पिताजी के साथ रहती थी --मन में एक डर  था कि  शायद मेरा वो घर नहीं मिले मुझे --ये डर सही साबित हुआ। क्योंकि उसे तोड़ कर नया रूप दे दिया गया था मैंने रास्ते में ये सोच लिया था की अगर मेरा वो घर टूट गया होगा तो खेतों के मेड़ों पर बैठ कर पुरानी यादों को जी लुंगी पर मैंने ये कई बार महसूस किया है की कुछ बातें हमारे नियंत्रण से परे  होती है। जब मैं वहां पहुंची तो घनघोर  बारिश होने लगी और बिजली भी चमकने लगी शायद मेरे साथ प्रकृति भी भावविभोर हो रही थी---उसे कुछ पल का साथ गवारा नहीं था सो --- मैंने मन ही मन उससे एक वादा कर लिया की मैं  फिर आऊँगी दो घंटे के लिए नहीं कम से कम दो दिन के लिए। मेरी दीदीमुनि जो मुझे बहुत प्रोत्साहित करती थीं उनसे और रामलाल जिसे  पिताजी  अपने बेटे जैसा मानते थे से भी भेट हुई पर मेरी सहेली मीरा से भेंट नहीं हो पाई वो अपने पति के पास भागलपुर गई थी। शाम ५ बजे के करीब लौट गई सुखद संतुष्टि के साथ। पतिदेव को तहेदिल से धन्यवाद देते हुए। मै तो हिम्मत हार  रही थी ये कहते हुए की पता नहीं वहां कोई मिलेगा या नहीं पर उन्होंने कहा कोई बात नहीं सोचना long drive पे जा रहे हैं। बहरहाल फोन नम्बर ले लिया था और दे दिया था। एक दिन मीरा का फोन आया --उसकी आवाज सुनकर दिल गदगद हो गया,मैंने कहा मीरा-- मुझे तो लगा था कि   तुम मुझे भूल गई होगी ? कैसे भूल सकती हूँ मैं तुम्हें निशा ? मैंने अपनी बेटी का नाम निशा रखा है --मुझे पता था की तुम मुझसे मिलने अवश्य आओगी।  हाँ --तुम्हारे प्यार की शक्ति ही तो मुझे खींच कर तुम्हारे पास ले गई थी --कहना  चाहकर भी  मैं नहीं कह पाई मीरा से --बस उसकी  बातें सुनती रही। आज जबकि  सम्पति के निवेश के नाम पर तथाकथित दोस्त नासूर बनकर अंतहीन और असीम दर्द की सौगात देने से नहीं चूकते  हैं और जरुरत न हो तो पैंतीस साल तो क्या पैंतीस मिनट भी बड़ी मुश्किल से याद रख पाते हैं --वहीँ मीरा जैसी सहेली कुदरत का करिश्मा बन कर मुझे खुशियो से सराबोर कर गई। शायद यही जिंदगी है। 


15 टिप्‍पणियां:

  1. accha lekh :) maine socha ki kavita hogi magar maloom chala ki aap gadya bhi acchaa likhti hain. :)

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  2. सचमुच, यही है टाइम मशीन। जब हम अपने विगत के साथियों से, अतीतस्थली से मिल पाएँ।

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  3. हृदय में उठती भावनाएँ ,दूसरी ओर भी वैसे ही बिंबित होती हैं .आप जिन्हें नहीं भूलीं उनके मन से आप की यादें कैसे चली जायें!

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